आज हम जानेंगे कि मृदा संसाधन क्या है और इसके कितने प्रकार है?
👉 मृदा संसाधन
- मृदा संसाधन (Mrida Sansadhan) सबसे महत्वपूर्ण नवीकरण योग्य प्रकृतिक संसाधन है।
- यह पौधो का विकास करती है और लाखो जीवो का पोषण करती है।
- मृदा बनने की प्रक्रिया मे उच्चावच, जनक शैल अथवा संस्तर शैल, जलवायु, वनस्पति, अन्य जैव पदार्थ और समय मुख्य कारक है।
- प्रकृति के अनेकों तत्व जैसे तापमान परिवर्तन, बहते जल की क्रिया, पवन, हिमनदी और अपघटन आदि क्रियाएँ मृदा बनाने की प्रक्रिया मे योगदान देती है।
- मृदा संसाधन जैव और अजैव दोनों प्रकार के पदार्थो से बनती है।
👉 मृदा के प्रकार
भारत मे अनेक प्रकार के उच्चावचनों, भू-आकृतियों, जलवायु और वनस्पतियों पाई जाती है। और इसकी कारण अनेक प्रकार की मृदाएँ विकसित हुई है।
1. जलोढ़ मृदा
- यह देश की एक महत्वपूर्ण मृदा है।
- भारत का सम्पूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना हुआ है।
- ये मृदा हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्रो सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाये गए निक्षेपों से बनी है।
- एक सँकरे गलियारे के द्वारा ये मृदाएँ राजस्थान और गुजरात तक फैली है।
- भारत के पूर्वी तटीय मैदान जैसे महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियो के डेलटे भी जलोढ़ मृदा से बने है।
- आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा के प्रकार दो है :-
- पुराना जलोढ़ (बांगर) – इस प्रकार की मृदा मे कंकर ग्रंथियों की मात्र अधिक होती है।
- नया जलोढ़ (खादर) – इस प्रकार की मृदा मई मृदा के महीन कण पाये जाते है।
- जलोढ़ मृदा की विशेषताएँ :-
- ये बहुत उपजाऊ होती है।
- ये मृदाएँ अधिकतर पोटाश, फास्फोरस और चूनायुक्त होती है।
- इनके कारण गन्ने, चावल, गेहूं, और अन्य अनाजों और दलहन फसलों की खेती के लिए उपयुक्त बनती है।
- इन मृदाओ का सही उपचार और सिंचाई करके इनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है।
2. काली मृदा
- इन मृदाओ का रंग काला होता है और इन्हे “रेंगर” मृदाएँ भी कहा ।
- यह मृदा कपास की खेती के लिए बहुत अच्छी होती है इसी कारण इन्हे काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है।
- जलवायु और जनक शैलो का इस मृदा को बनाने मे महत्वपूर्ण योगदान है।
- ये मृदाएँ दक्कन पठार, क्षेत्र के उत्तर पश्चिमी भागो मे पाई जाती है और लावा जनक शैलो से बनी है।
- ये महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठारो पर पाई जाती है।
- काली मृदा की विशेषताएँ :-
- इनमे नहीं धारण करने की क्षमता बहुत अच्छी होती है।
- ये कैल्शियम कार्बोनेट, मैगनीशियम, पोटाश और चूने जैसे पौष्टिक तत्वो से परिपूर्ण होती है।
- गर्म मौसम मे इनमे गहरी दरारे पद जाती है जिससे इनमे अच्छी तरह वायु मिश्रण हो जाता है।
- गीली होने पर ये चिपचिपी हो जाती है और इन्हे जोतना मुश्किल हो जाता है।
3. लाल और पीली मृदा
- ये मृदा दक्कन पठारो के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सो मे कम वर्षा वाले भागो मे विकसित हुई है।
- ये उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट मे पहाड़ी क्षेत्रों मे पाई जाती है।
- इनका लाल रंग रवेदार आगनेय और रूपांतरित चट्टानों मे लौह धातु के प्रसार के कारण होता है।
- इनका पीला रंग जलयोजन के कारण होता है।
4. लेटराइट मृदा
- लेटराइट शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द लेटर से हुई है जिसका अर्थ है ईट।
- यह उच्च तापमान और अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों मे विकसित होती है।
- इस मृदा मे ह्यूमस की मात्रा कम पाई जाती है क्योकि ज्यादा तापमान के कारण जैविक पदार्थो को अपघटित करने वाले बैक्टीरिया नष्ट हो जाते है।
- ये मृदाएँ कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू, उड़ीसा और असम आदि पहाड़ी क्षेत्रों मे पाई जाती है।
- केरल, तमिलनाडू और आन्ध्रप्रदेश की लाल लेटराइट मृदाएँ काजू की फसल के लिए अधिक उपयुक्त है।
5. मरुस्थली मृदा
- मरुस्थली मृदाओ का रंग लाल और भूरा होता है।
- ये आमतौर पर रेतीली और लवणीय होती है।
- कुछ क्षेत्रों मे नमक की मात्र इतनी ज्यादा है कि झीलों से जल को वाष्पीकृत करके खाने का नमक भी बनाया जाता है।
- शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जलवाष्पन दर अधिक है और मृदाओ मे ह्यूमस और नमी की मात्रा कम होती है।
- इस मृदा का सही तरीके से सिंचित करके इसे कृषि योग्य बनाया जा सकता है जैसे पश्चिमी राजस्थान मे हो रहा रहा है।
6. वन मृदा
- ये मृदाएँ आमतौर पर पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों मे पायी जाती है जहां पर्याप्त वर्षा और वन उपलब्ध है।
- इन मृदाओ के निर्माण मे पर्वतीय पर्यावरण के कारण बदलाव आता है।
- नदी घाटियो मे ये मृदाएँ दोमट और सिल्टदार होती है।
- हिमालयी क्षेत्रों मे इन मृदाओ का बहुत अपरदन होता है और ये अधिसिलिक (acidic) तथा ह्यूमस रहित होती है।
- नदी घाटियों के निचले क्षेत्रों मे ये मृदाएँ उपजाऊ होती है।
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