नर्मदा बचाओ आंदोलन आंदोलन की शुरुआत 1980 के दशक मे हुई थी।
आंदोलन से जुड़े प्रमुख नेता- मेघा पाटेकर (1993 मे आंदोलन के चलते अनशन पर बैठी थी)
नर्मदा घाटी विकास परियोजना मे मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और सहायक नदियों पर 30 बड़े, 135 मझोले और 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया।
गुजरात के सरदार सरोवर और मध्यप्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप मे दो सबसे बड़ी बहु-उद्देश्यीय परियोजना का निर्धारण किया गया।
नर्मदा नदी के बचाव मे नर्मदा बचाओ आंदोलन चलाया गया।
इस आंदोलन मे बांधो के निर्माण का विरोध किया गया।
यह आंदोलन दो से भी ज्यादा दशको तक चला।
आंदोलन ने अपनी बात को न्यायपालिका से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचो तक से उठाई।
बाँध समर्थको का तर्क
गुजरात के बहुत बड़े हिस्से सहित तीन राज्यो में पीने के पानी की उपलब्धता।
सिंचाई तथा बिजली के उत्पादन की सुविधा।
कृषि की उपज मे गुणात्मक सुधार।
बाढ़ और सूखे की आपदाओं पर अंकुश।
बाँध विरोधियों का तर्क
परियोजना के कारण संबंधित राज्यो के लगभग 245 गाँव डूब के क्षेत्र मे आ रहे थे।
करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मुद्दा।
आजीविका, संस्कृति और पर्यावरण पर बुरा प्रभाव।
लोगो का रोजगार छिनने का डर।
नर्मदा बचाओ आंदोलन की माँगे
अब तक की सभी विकास परियोजनाओ पर हुए खर्च का विश्लेषण किया जाए।
परियोजना से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित सभी लोगों का समुचित पुनर्वास किया जाए।
परियोजना की निर्णय प्रक्रिया मे स्थानीय समुदायों की भागीदारी।
क्षेत्रीय जल, जंगल, जमीन जैसे प्रकृतिक संसाधनों पर उनका प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए।
बांधो के निर्माण मे आ रही भारी लागत का सामाजिक नुकसान के संदर्भ मे मूल्यांकन किया जाए।
आंदोलन का परिणाम
इस आंदोलन के परिणाम स्वरूप केंद्र सरकार ने 2003 में राष्ट्रीय पुनर्स्थापन नीति की घोषणा की।
इस आंदोलन को समृद्धि और विकास का सूचक माना गया।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के आलोचको का तर्क
आलोचको का कहना था कि आंदोलन का रवैया अड़ियल रहा है।
उनके अनुसार यह आंदोलन विकास की प्रक्रिया, पानी की उपलब्धता और आर्थिक विकास मे बाधा उत्पन्न कर रहा है।