आज हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के जीवन के बारे मे जानेंगे? उनका भारतीय राजनीति मे क्या योगदान रहा? उनके विचार कैसे थे? वो भारतीय जनसंघ पार्टी से कैसे जुड़े आदि?
पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भारतीय जनसंघ
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और राजनेता थे।
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1942 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे।
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वे भारतीय जनसंघ नामक पार्टी के संस्थापक सदस्य थे।
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दीनदयाल उपाध्याय जी पहले भारतीय जनसंघ के महासचिव बने फिर वे इस पार्टी के अध्यक्ष बने।
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इस पार्टी ने “एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र” के विचार पर ज़ोर दिया।
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इनका मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परंपरा के आधार पर ही आधुनिक, प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है।
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इनका मानना था कि भारत और पाकिस्तान को एक करके ‘अखंड भारत’ बनना चाहिए।
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ये अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष मे थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार (एकात्मक मानववाद )
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक थे और उनके द्वारा प्रस्तुत दर्शन को ‘एकात्म मानवतावाद’ कहा जाता है।
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जिसका उद्देश्य एक ‘स्वदेशी सामाजिक-आर्थिक मॉडल’ प्रस्तुत करना था जिसमें मानव विकास के केंद्र में रहता है।
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एकात्म मानववाद का उद्देश्य व्यक्ति और समाज की जरूरतों को संतुलित करते हुए हर इंसान के लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करना है। यह प्राकृतिक संसाधनों की टिकाऊ खपत का समर्थन करता है ताकि उन संसाधनों की भरपाई की जा सके ।
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एकात्म मानववाद न केवल राजनीतिक बल्कि आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र और स्वतंत्रता को भी बढ़ाता है।
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चूंकि यह विविधता को बढ़ावा देना चाहता है, इसलिए यह भारत के रूप में विविध देश के लिए सबसे उपयुक्त है।
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एकात्म मानववाद का दर्शन निम्नलिखित तीन सिद्धांतों पर आधारित है:
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1. सब की प्रधानता, किसी एक वर्ग, जाति की नहीं (सम्पूर्ण की प्रधानता, किसी एक भाग की नही)
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2. धर्म की सर्वोच्चता
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3. समाज की स्वायत्तता
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पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिमी ‘पूंजीवादी व्यक्तिवाद’ और ‘मार्क्सवादी समाजवाद’ दोनों का विरोध किया।
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दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार पूंजीवादी और समाजवादी विचारधाराएं केवल मानव शरीर और मन की जरूरतों पर विचार करती हैं। और इसलिए वे भौतिकवादी उद्देश्य पर आधारित हैं।
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जबकि पूंजीवाद और समाजवाद दोनों में गायब रहने वाले मानव के पूर्ण विकास के लिए आध्यात्मिक विकास समान रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।
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दीनदयाल उपाध्याय जी ने एक वर्गहीन, जातिहीन और संघर्ष मुक्त सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की।